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Thursday, July 1, 2010

प्रमाण के साथ ही समझ पूरा होता है।

भ्रमित स्थिति में भी आप सत्य की अपेक्षा करते रहे। सत्य की अपेक्षा आप में समाई रही। उसके बाद आपको सूचना मिली की यह अपेक्षा जीवन में है। जीवन में सह-अस्तित्व-वाद की सूचना को सोचने गए तो यह आपके तुलन में आ गया। इस तरह सूचना के रूप में न्याय, धर्म, और सत्य आपके तुलन में आ गया। आपका तुलन इस प्रकार शुरू हुई तो आपके चित्त में साक्षात्कार होना शुरू हो गया। चित्त में साक्षात्कार पूरा होना बोध के पहले ज़रूरी है। साक्षात्कार पूरा होने के बाद ही बोध होता है। सह-अस्तित्व बोध हो गया, तो अनुभव-मूलक विधि से वह प्रमाण रूप में आने लगता है।

अनुभव का रोशनी सदा सदा जीवन में रहता ही है। शरीर का क्रिया-कलाप जीवन के साढ़े चार क्रिया में ही समाप्त हो जाता है, अनुभव तक पहुँचने का इसमें कोई material रहता नहीं है। न्याय-धर्म-सत्य सूचना के रूप में पहुँची तो साक्षात्कार का प्रोजेक्ट शुरू हो गया। अनुभव होने के बाद, अनुभव-प्रमाण सहित हम पुनः प्रस्तुत हो पाते हैं।

भ्रमित अवस्था में इतना तक रहता है - की तुलन होता है। हर व्यक्ति प्रिय-हित-लाभ का तुलन करता ही है। इसी लिए हम को यह स्वीकार होता है की न्याय-धर्म-सत्य का भी तुलन होता है। यह बात हम-में मान्यता के रूप में रहता है। जब हम प्रमाणित होने लगते हैं, तो इसमें हमें विश्वास होता है।

न्याय-धर्म-सत्य को मान्यता के आधार पर शब्द के द्वारा जब हम स्वीकारते हैं - तो उसका साक्षात्कार अपने आप से चित्त में होता है। चित्त में साक्षात्कार होने के फलस्वरूप बोध, बोध के बाद अनुभव, अनुभव के फलस्वरूप प्रमाण, फलस्वरूप प्रमाण-बोध। यहाँ तक पहुँचने के बाद हम चिंतन पूर्वक हम प्रमाणित करने योग्य हो जाते हैं।

प्रमाण के साथ ही समझ पूरा होता है।
अनुभव के बिना समझ पूरा नहीं होता। तब तक शब्द ही रहता है।

मान्यता और आस्था के साथ हम अध्ययन शुरू करते हैं।
प्रमाण के आधार पर हम प्रमाणित हो जाते हैं।

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श्री नागराज शर्मा के साथ अगस्त २००६ में हुए संवाद पर आधारित

मनुष्य की कल्पनाशीलता का तृप्ति बिन्दु सह-अस्तित्व में ही है।

* सत्ता में संपृक्त प्रकृति का बोध बुद्धि में ही होता है। यह मन में नहीं होता। चित्त में चित्रित नहीं होता। बुद्धि में इसका बोध होने पर मन, वृत्ति, और चित्त तीनो तृप्त हो जाते हैं।

* बुद्धि में जो बोध होता है, वह अनुभव मूलक विधि से प्रमाण प्रस्तुत होता है। अनुभव से पहले चित्त में जो चित्रण होता है - वह अनुभव-मूलक विधि से प्रमाणित नहीं होता। संवेदना के रूप में ही व्यक्त होता है।

* चित्त में साक्षात्कार होने के बाद बुद्धि में बोध ही होता है। बोध होने के बाद अनुभव-मूलक विधि से पुनः प्रमाण बोध होता है। प्रमाण बोध का संकल्प होता है - बोध को प्रमाणित करने के लिए । संकल्प होने से उसका चिंतन होता है। चिंतन के पश्चात् उसका चित्रण होता है। वह चित्रण हम आगे प्रकाशित करना शुरू कर देते हैं।

* मनुष्य की कल्पनाशीलता का तृप्ति बिन्दु सह-अस्तित्व में ही है। कल्पनाशीलता की रोशनी में हमें साक्षात्कार/बोध हो गया। अनुभव की रोशनी बना ही रहता है - फलस्वरूप अनुभव में कल्पनाशीलता विलय हो जाती है। अनुभव की रोशनी प्रभावी हो जाती है।

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श्री नागराज शर्मा के साथ अगस्त २००६ में हुए संवाद पर आधारित

Wednesday 13 February 2008

तृप्ति कैसे लाई जाए?

प्रिय, हित, लाभ के साथ तुलन रहते प्रिय, हित, लाभ का ही चित्रण रहता है। इस आधार पर वह चिंतन-क्षेत्र में जाता ही नहीं है। शरीर मूलक बात को चित्रण से आगे बढाया नहीं जा सकता। उसमें केवल संवेदनाएं हैं, और संवेदनाओं को राजी करने की प्रवृत्ति है। इसी को संवेदनशीलता कहा। 'वेदना' इसलिए कहा - क्योंकि सुख भासता है, सुख निरंतर रहता नहीं है। यह कष्ट बना है। यह वेदना अतृप्ति का कारण है। इसीलिए चित्रण में बार - बार दुःख दखल करता है। बिगाड़ का संकेत चित्रण में आता ही है। वह मानव के लिए संकट है। उससे मुक्ति पाना मानव का काम है। भय, प्रलोभन वश हम कुछ करते भी हैं - उससे कुछ सही हो जाता है, कुछ ग़लत हो जाता है। इसमें से जो "सही" वाला भाग है - वह शरीर से संबंधित है। "गलती" वाला भाग चारों अवस्थाओं से संबंधित है। (क्योंकि सही की पहचान शरीर मूलक विधि से ही की गयी थी। जिससे चारों अवस्थाओं के साथ गलती होती है। ) इस ढंग से हम सही-पन के बारे में हम केवल शरीर तक ही सीमित हो गए। 'सही-पन' को पहचानने का क्षेत्र इस तरह shrink हो गया। 'गलती' का क्षेत्र बढ़ गया। गलती का क्षेत्र बढ़ने से गलती की आदत बढ़ती गयी। कल्पनाशीलता, कर्म-स्वतंत्रता रहा ही। मनाकर को साकार करने के लिए कोई भी अपराध को हम वैध मान लिए।

अब इस तरह हम चलते-चलते यहाँ तक पहुंचे - जब आपके सामने यह सह-अस्तित्व का मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव आ गया। इससे आप रोमांचित हुए। क्योंकि आपकी बुद्धि की चित्रण से सहमति मिली।

बुद्धि की चित्रण के साथ सहमति होने पर रोमान्चकता तो है - पर तृप्ति नहीं है।

तृप्ति कैसे लाई जाए?

तुलन में न्याय, धर्म, सत्य को प्रधान माना जाए। न्याय-धर्म-सत्य को हम चाहते तो हैं ही। यह हर व्यक्ति में है। मन में भी न्याय-धर्म-सत्य के साथ सहमति है। इस तरह हम जितना भी जाने हैं - उससे यह देखना शुरू करते हैं, कि यह कहाँ तक न्याय है, क्या यह समाधान है, यह कहाँ तक सच्चाई है? यह जिज्ञासा करने से हम अपनी वरीयता को न्याय-धर्म-सत्य में फिक्स कर देते हैं। यही तरीका है - न्याय-धर्म-सत्य को स्वयं में प्रभावशील बनाने का। स्वयं की न्याय, धर्म, सत्य के आधार पर scrutiny करना। यह scrutiny होने पर हम स्वयं में न्याय-धर्म-सत्य की प्राइमेसी को स्वीकार लेते हैं। यह स्वीकारने के बाद - हम न्याय क्या है, सत्य क्या है, धर्म क्या है? - इस enquiry में जाते हैं।

इसमें जाने पर पता चलता है - सह-अस्तित्व रुपी अस्तित्व ही परम-सत्य है। यह बुद्धि को बोध होता है। इससे बुद्धि के स्वयं में संतुष्ट होने की सम्भावना बन जाती है। बुद्धि को suggestion पहुँचा - कि सह-अस्तित्व रुपी अस्तित्व सत्य है, समाधान रूपी धर्म है, और मूल्यों के रूप में न्याय है। यह बुद्धि को स्वीकार होता है। बुद्धि को जब यह digest हुआ तो तुरंत अनुभव में आ जाता है। इस तरह सह-अस्तित्व में अनुभव होना हो जाता है।

बोध तक अध्ययन है। उसके बाद अनुभव ऑटोमेटिक है।

अब अनुभव मूलक विधि से प्रमाण बोध होने लगता है। प्रमाण बोध होने लगता है, तो हमारे आचरण में आने लगता है।

अब तुम्ही बताओ - इसको मैं सत्य मानू या और कुछ को सत्य मानु?
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श्री नागराज शर्मा के साथ अगस्त २००६ में हुए संवाद पर आधारित

न्याय धर्म सत्य

न्याय धर्म सत्य

न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक तुलन करने की बात वृत्ति में रखा हुआ है। उससे संबंधित शब्द हम सुनते हैं। शब्द से संबंधित वस्तु वहाँ नहीं रहा। शरीर-मूलक विधि से यह वस्तु वृत्ति में आता नहीं है। वृत्ति में सह-अस्तित्व 'होने' के रुप में शब्द से स्वीकार हो जाता है। न्याय-धर्म-सत्य को 'रहने' के रुप में पहचानना शेष रहता है। 'शब्द' से इतना उपकार हुआ - कि न्याय-धर्म-सत्य होने के रुप में स्वीकार हो गया। जब कार्य-रुप में गए तो शब्द पर्याप्त नहीं हुआ। शब्द से जो सह-अस्तित्व इंगित है - वह क्या है? इस जगह में हम पहुँचते हैं। यह होने पर सह-अस्तित्व चित्त में ही साक्षात्कार होता है - चिंतन क्षेत्र में। साक्षात्कार होने पर बोध होता ही है। बोध होने के बाद प्रमाण-बोध बुद्धि में पुनः होता है। अनुभव-प्रमाण बोध होने के बाद बुद्धि चिंतन के लिए परावर्तित होती ही है। फलस्वरूप उसके अनुरूप चित्रण होता है। ऐसा चित्रण होने से सामने वाले व्यक्ति को बोध करने के लिए वस्तु मिलने लगी।

संकल्प प्रमाणित होने का गवाही है।
चिंतन चित्रण का प्रष्ठ्भूमि है।

संकल्प प्रमाणित होने के लिए पुडिया है! उसके लिए चिंतन एक आवश्यक प्रक्रिया है। ताकि वृत्ति तृप्त हो सके - कि यही न्याय है! यही धर्म है! यही सत्य है! यह होने कि लिए अनुभव आवश्यक रहा।

इस तरह अनुभव मूलक विधि से सत्य तुलन में घंटी बजाने लगा! धर्म घंटी बजाने लगा! न्याय घंटी बजाने लगा! फलस्वरूप संवेदना से जो इन्फोर्मेशन मिली वह इसमें नियंत्रित हो गयी। अपने आप! इसमें कोई बल, पैसा, या रूलिंग लगाने की जरूरत नहीं है। स्वाभाविक रुप में यह हो जाता है। इस प्रकार विचार में न्याय-धर्म-सत्य समाहित हो जाता है।

इन विचारों के आधार पर मन में मूल्य जो स्पष्ट हुए - उनका आस्वादन मन में हुआ। मन में हुए इस आस्वादन के अनुसार चयन करने लगे तो हम जीने में प्रमाणित होने लगे! प्रमाणित करने के लिए एक तरफ बुद्धि में संकल्प, और दूसरी तरफ मन में चयन। ये दोनों मिलकर प्रमाण परंपरा बन गयी।

शिक्षा विधि से अध्ययन
अध्ययन विधि से बोध
बोध विधि से अनुभव
अनुभव विधि से प्रमाण
प्रमाण विधि से प्रमाण-बोध का संकल्प
प्रमाण-बोध के संकल्प से चिंतन और चित्रण
चिंतन और चित्रण से तुलन और विश्लेषण
तुलन और विश्लेषण के आधार पर मूल्यों का आस्वादन - और उसी के लिए चयन

- श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित ( अगस्त २००६, अमरकंटक)

जीवन अपने स्वरूप में एक गठन-पूर्ण परमाणु

जीवन अपने स्वरूप में एक गठन-पूर्ण परमाणु है। इसके पाँच स्तर हैं - मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि, और आत्मा। जीवन इन पाँचों का अविभाज्य स्वरूप है। भ्रमित-मनुष्य में जीवन की ४.५ क्रियाएं ही क्रियाशील रहती हैं, शेष क्रियाएं सुप्त रहती हैं। ४.५ क्रियाएं जो क्रियाशील रहती हैं - उसी से मनुष्य में कल्पनाशीलता प्रकट है। आशा, विचार, और इच्छा का संयुक्त स्वरूप कल्पनाशीलता है। भ्रमित-जीवन में विचार (वृत्ति) प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से कार्य करता है। भ्रमित-जीवन में इच्छा (चित्त) में चित्रण क्रियाशील रहता है, चिंतन सुप्त रहता है।

चिंतन भाग जीवन में तब तक सुप्त रहता है जब तक अनुभव-प्रमाण आत्मा में न हो! अनुभव-प्रमाण के बिना चिंतन की "खुराक" ही नहीं है।

वृत्ति में जब हम प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से ही तुलन करते हैं तो वह चिंतन में जाता नहीं है। प्रिय-हित-लाभ पूर्वक तुलन करके हम शरीर-मूलक चित्रण तक ही पहुँचते हैं। शरीर-मूलक बात को चित्रण से आगे बढाया नहीं जा सकता। उसमें चिंतन की कोई वस्तु नहीं है। उसमें केवल संवेदना है, और संवेदना को राजी रखने की प्रवृत्ति है। इसी को "संवेदनशीलता" कहा है। इसको "वेदना" इसलिए कहा - क्योंकि संवेदनाओं में सुख "भासता" है ("सुख जैसा लगता है") पर उसकी निरंतरता नहीं बनती। यह "कष्ट" भ्रमित-जीवन में बना रहता है।

भामित-मनुष्य का यह "कष्ट" उसके जीवन में अतृप्ति के कारण है। भ्रमित-जीवन में अतृप्ति की रेखा चिंतन और चित्रण के बीच बनी है। भ्रमित-जीवन जब जीता है, तो उसको समस्याएं ही समस्याएं आती हैं। भ्रमित-जीवन को जीने में समाधान नहीं मिलता। समस्याओं के बिगाड़ का संकेत चित्रण में आता ही है। वही मानव के लिए "संकट" है। जैसे- धरती बीमार हो गयी, बिगाड़ का यह संकेत मनुष्य के चित्रण में आता ही है। इस संकट से मुक्ति और भ्रमित कार्य करने से तो नहीं मिल सकती।

इस संकट से मुक्ति तभी सम्भव है जब मनुष्य ४.५ क्रिया के स्थान पर १० क्रिया पूर्वक जिए। उसके लिए ही मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन का प्रस्ताव है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
जीवन अपने स्वरूप में एक गठन-पूर्ण परमाणु है. गठनशील परमाणु ही विकसित हो कर गठन-पूर्ण बनता है. जीवन चैतन्य ईकाई है, जो भौतिक-रासायनिक शरीर को जीवंत बनाता है. जीवन दस अविभाज्य क्रियाओं का संयुक्त स्वरूप है - जिसमें से ५ स्थिति में और ५ गति में हैं. जीवन में ५ स्तर होते हैं - मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि, और आत्मा. मन आस्वादन (स्थिति) और चयन (गति) को प्रकाशित करता है. मन ही मेधस पर जीवन के संकेतों को प्रसारित करता है. मन की शक्ति को "आशा" कहते हैं. वृत्ति तुलन (स्थिति) और विश्लेषण (गति) को प्रकाशित करता है. वृत्ति की शक्ति को "विचार" कहते हैं. भ्रमित जीवन में वृत्ति में तुलन प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों के आधार पर होता है. न्याय-धर्म-सत्य की तुलन-दृष्टियाँ सुप्त रहती हैं. प्रिय-हित-लाभ शरीर-मूलक दृष्टियाँ है. न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियाँ अनुभव-मूलक विधि से ही जागृत होती हैं. चित्त चिंतन (स्थिति) और चित्रण (गति) को प्रकाशित करता है. चित्त की शक्ति को "इच्छा" कहते हैं. भ्रमित-जीवन में चिंतन क्रियाशील नहीं रहता है तथा चित्रण भी शरीर-मूलक होता है. इस तरह भ्रमित-जीवन में मन की दो क्रियाएं, वृत्ति की १.५ क्रियाएं (आधा तुलन), और चित्त की एक क्रिया क्रियाशील रहती है. यही ४.५ क्रिया हैं. यही आशा, विचार, इच्छा हैं. आशा, विचार, और इच्छा के संयुक्त स्वरूप को ही कल्पनाशीलता कहते हैं. भ्रमितमनुष्य कल्पनाशीलता पूर्वक कर्म-स्वतंत्रता को अपने जीने में प्रकाशित करता है. भ्रमित-जीवन की बुद्धि में बोध नहीं रहता, लेकिन वह बोध की अपेक्षा में रहती है. लेकिन शरीर-मूलक कल्पनाशीलता द्वारा किये गए कार्यों और उनके फल-परिणामो से होने वाले चित्रणों को बुद्धि स्वीकारती नहीं है. यह "असहमति" या "अतृप्ति" ही मनुष्य में मूल पीडा है. इस पीडा को दूर करने के लिए मनुष्य और कल्पनाशीलता का प्रयोग करता है, लेकिन उससे कोई समाधान मिलता नहीं है. केवल आशा-विचार-इच्छा के योग में काम करने से समस्या ही मनुष्य पैदा कर सकता है. इसी कल्पनाशीलता को अस्तित्व के अध्ययन में लगाने से जीवन में सुप्त क्रियाएं जागृत हो सकती हैं. यही मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव है. सुप्त क्रियाएं हैं: आत्मा में अनुभव (स्थिति) और प्रमाण (गति). आत्मा की शक्ति को प्रामाणिकता कहते हैं. यह अध्ययन पूर्वक जागृत होती है. भ्रमित-जीवन में ये क्रियाएं सुप्त रहती हैं. जागृत होने पर यही जीवन में तृप्ति का अक्षय स्त्रोत है. बुद्धि में बोध (स्थिति) और संकल्प (गति). बुद्धि की शक्ति को ऋतंभरा कहते हैं. भ्रमित जीवन में ये क्रियाएं सुप्त रहती हैं, और चित्त में होने वाली क्रियाओं का दृष्टा बनी रहती हैं. जागृत जीवन में यही शक्ति स्वयं में सच्चाई के प्रति अटूट विश्वास का स्त्रोत है. अनुभव मूलक विधि से चित्त में चिंतन होता है. यह न्याय, धर्म, और सत्य को जीने में प्रमाणित करने के अर्थ में होता है. यही चिंतन अनुभव-मूलक चित्रण का आधार हो जाता है. यही चिंतन वृत्ति में न्याय-धर्म-सत्य तुलन क्रियाओं को क्रियाशील बनाता है. इस तरह अनुभव-मूलक विधि से जीवन में १० क्रियाएं क्रियाशील हो जाती हैं. यह सार-संक्षेप में कही गयी बात है.